यंगवार्ता न्यूज़ - शिमला 15-12-2024
कामकाजी महिलाओं की समन्वय समिति संबंधित सीटू का प्रथम शिमला जिला अधिवेशन किसान मजदूर भवन चितकारा पार्क कैथू शिमला में सम्पन्न हुआ। अधिवेशन में निशा देवी को संयोजक, राजमिला को सह संयोजक, हिमी देवी, सरीना, भूमि, शांति देवी, निशा, मंजुलता, शीला कायथ, विद्या, सुरेंद्रा, बंदना, उमा, सुनीता, सुशीला, विद्या गाजटा, रूपा, सुलक्षणा, शान्ता, संगीता, मन्जू, आशा, रीना, पिंकी व शीतल को कमेटी सदस्य चुना गया। अधिवेशन में सीटू प्रदेशाध्यक्ष विजेंद्र मेहरा, उपाध्यक्ष जगत राम, जिला महासचिव अजय दुलटा, कोषाध्यक्ष बालक राम, सीटू नेता सुनील मेहता, विवेक कश्यप, रामप्रकाश, विरेंद्र लाल, सीताराम, प्रदीप सहित शिमला जिला के शिमला, रामपुर, रोहड़ू, ठियोग, जुब्बल कोटखाई, चिड़गांव, निरमंड, सुन्नी, मतियाना, चौपाल, कुमारसैन, कुसुम्पटी, मशोबरा से आई सैंकड़ों कामकाजी महिलाओं ने भाग लिया।
इसमें आईजीएमसी, केएनएच, चमियाना, मेंटल, रामपुर व रोहड़ू अस्पतालों, आंगनबाड़ी, मिड डे मील, नगर परिषद रामपुर व रोहड़ू, सैहब सोसाइटी, एसटीपी, विशाल मेगामार्ट आदि की कामकाजी महिलाओं ने भाग लिया। अधिवेशन का उद्घाटन सीटू प्रदेशाध्यक्ष विजेंद्र मेहरा ने किया। अधिवेशन को जगत राम , अजय दुलटा व बालक राम ने संबोधित किया। उन्होंने कहा कि भारतीय समाज में महिलाएं तिहरे शोषण की शिकार हैं। वे एक महिला व नागरिक के रूप में शोषित रहती हैं क्योंकि अर्ध सामंती पूंजीवादी समाज में वे हमेशा दोयम दर्जे की नागरिक के रूप में जीवन जीने को मजबूर रहती हैं। संविधान के अनुच्छेद 14 में समानता के अधिकार के बावजूद उन्हें समानता हासिल नहीं होती है। वे एक मजदूर के रूप में शोषण का शिकार होती हैं। सन 1976 में बने समान पारिश्रमिक कानून के बावजूद उन्हें कई क्षेत्रों में पुरुष मजदूरों के बराबर वेतन नहीं मिलता है व उन्हें कम वेतन देकर कम आंका जाता है।
वे आर्थिक शोषण की शिकार होती हैं। अगर महिलाएं दलित हों तो संविधान के अनुच्छेद 17 के बावजूद उन्हें समाज में जातिगत शोषण, छुआछूत व भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। महिलाओं को लैंगिक उत्पीड़न का भी शिकार बनना पड़ता है। इस तरह महिलाएं भारतीय समाज में आधी आबादी होने के बावजूद भी शोषण व दमन का शिकार होती हैं व दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में जीने को मजबूर होती हैं। नवनिर्वाचित जिला संयोजक निशा देवी व सह संयोजक राज मिला ने कहा कि वर्तमान केंद्र व प्रदेश सरकारें नारी उत्थान व महिला सशक्तिकरण के नारे तो देती हैं परन्तु कभी भी महिला स्वावलंबन के लिए कार्य नहीं करती हैं। वे महिलाओं को केवल करवा चौथ व भाई दूज की छुट्टियां देकर संतुष्ट करने की कोशिश करती हैं परन्तु उनको कभी भी सम्मानजनक वेतन नहीं देती हैं।
योजना कर्मियों के रूप में कार्य करने वाली आंगनबाड़ी, आशा व मिड डे मील महिलाओं को आज के इस भारी महंगाई के दौर में केवल मात्र चार हज़ार से लेकर दस हजार वेतन दिया जाता है जबकि माननीय सुप्रीम कोर्ट के सन 1992 के आदेश व सन 1957 के भारतीय श्रम सम्मेलन की सिफारिश अनुसार यह वेतन 26 हज़ार होना चाहिए था। आउटसोर्स व ठेका मजदूर व कर्मचारी के रूप में कार्य करने वाली महिलाओं को बेहद कम वेतन दिया जाता है जिस से उनका गुजर बसर करना नामुमकिन है। इस तरह महिलाएं सामाजिक, लैंगिक व आर्थिक तौर पर भरी शोषण की शिकार हैं।